Wednesday, April 29, 2009

कमजोर या मजबूत...........

अगर पिछले साठ सालों पर नज़र दौडाएं तो केवल दो प्रधानमंत्री ही नजर आतें हैं. एक श्रीमती इंदिरा गाँधी और दूसरे श्री लाल बहादुर शास्त्री, इनके अलावा कोई दूसरा याद नहीं आता. लाल बहादुर शास्त्री तो केवल अट्ठारह महीने ही शासन कर पाए. किन्तु अट्ठारह महीनों में उनहोंने दो ऐसे महत्वपूर्ण काम किये जिनके लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा. पहला पाकिस्तान को उसी की भाषा में सबक सिखाना, किन्तु युद्ध समाप्ति के पश्चात वैश्विक ताकतों के आगे वे खुद को दृढ नहीं रख पाए और दबाव में आकर उन्हें समझौता करना पड़ा. समझौते के लिए उनका सोवियत रूस जाना आखिरकार देश और उनके स्वयं के लिए घातक सिद्ध हुआ. लेकिन इससे पहले जो दूसरा काम उन्होंने किया वो था पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना. आपको शायद याद होगा कि उस समय देश अनाज की कमी से जूझ रहा था और ऐसे में उनकी एक आवाज पर देश भर में सप्ताह में एक बार अधिकांश लोगों ने व्रत रखना शुरू कर दिया था. लेकिन उससे भी बड़ी बात, उस वक़्क्त अधिकतर ढाबों व् होटलों ने भी सप्ताह में एक बार अपने प्रतिष्ठानों को बंद रखना शुरू कर दिया था. ये वास्तव में एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी, विशेषतया आज के हालात को देखते हुए तो वाकई एक बड़ी उपलब्धि थी. मुझे नहीं लगता कि यदि आज के सारे नेता भी मिलकर ऐसा कोई निर्णय लें और देश की जनता से कहें तो कोई उनकी बात पर अमल करेगा, अमल तो दूर की बात है कोई उन पर भरोसा ही नहीं करेगा. यही है आज के सत्ताधारियों की असलियत. ये शास्त्री जी का चरित्र ही था कि उनकी एक आवाज पर देश उनके साठ उठ खड़ा होता था. यही है एक मजबूत प्रधानमंत्री की विशेषता.

श्रीमती इंदिरा गांधी एक करिश्माई नेता थी लेकिन वो एक दृढ इच्छा शक्ति वाली भी थी. मेरे विचार में यही एक विशेषता उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाती थी, वो जो ठान लेती थी उसे अंततः पूरा करके ही छोड़ती थी (यही उनकी आलोचना का कारण भी था) चाहे बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो, चाहे बांग्लादेश की स्थापना या ब्लू स्टार ऑपेरशन या फिर इमरजेंसी की घोषणा. इसका ये अर्थ कतई नहीं है कि उनके सारे निर्णय सही थे. इमरजेंसी लगाना लोकतंत्र के लिए बेहद नुकसानदेह था. लेकिन जैसे हर बुराई में एक अच्छाई होती है उसी तरह इमरजेंसी में एक बात जरूर हुई कि दफ्तरों में कर्मचारी समय पर आने लगे, बसें और रेल समय पर चलनी शुरू हो गयी, हालांकि पूर्ण रूप से नहीं पर अधिकतर, हाँ उस समय बड़े अफसर और विभागाध्यक्ष निरंकुश हो गए और ज्यादातर कर्मचारियों का उत्पीडन हुआ था. उस समय की एक घटना...........

भारतीय स्टेट बैंक के दिल्ली मंडल में उस समय एक महाप्रबंधक थे श्री रंगाचारी, उन्होंने इमरजेंसी में कर्मचारियों का बड़ा उत्पीडन किया, वे बैंक की किसी भी शाखा में पहुँच जाते थे और अगर कोई कर्मचारी अपनी सीट पर नहीं मिलता (चाहे वो उस समय टॉयलेट ही क्यों न गया हो) उसको तुंरत निलंबित कर देते थे और अगर निलंबित नहीं किया तो 200 से 250 किo मीo दूर ट्रांसफर अवश्य कर ही देते थे और किसी-किसी का पूरे दिन का वेतन काटने के आदेश दे देते थे. लेकिन जब इमरजेंसी ख़त्म हुई और उनका रिटायमेंट हुआ तो जानते हैं उनके साथ क्या हुआ ! नयी दिल्ली के स्थानीय प्रधान कार्यालय की लिफ्ट में कर्मचारियों ने उनकी जम कर धुनाई कर डाली और उनके गले में जूतों का हार डाल कर विदा किया. स्टाफ द्वारा उनके साथ किया गया ये व्यव्हार कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन ये तो प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, क्रिया जितनी तीव्र होगी प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीव्रता से होगी. इमरजेंसी के बाद 1977 के आम चुनावों में इंदिरा जी की हार भी इसी का परिणाम थी.
इन सारे घटनाक्रमों को यदि ध्यान से देखा जाए तो इनमें एक मूल तत्त्व का नितांत आभाव था और वो है "विवेक" . मनुष्य (चाहे वो किसी स्तर पर हो) के द्बारा लिए निर्णयों में विवेकशीलता का होना अत्यंत आवश्यक है. विवेकहीनता से तो एक घर भी नहीं चलता फिर देश चलाने की तो बात ही सोचना बेकार है.

आडवानी जी मनमोहन सिंह जी को कमजोर प्रधानमंत्री बता रहें हैं और वे खुद तो कमजोर भी साबित नहीं हो सके, भारतीय यात्री विमान अगवा कर लिया जाता है उसके बाद वो अमृतसर के हवाई अड्डे पर उतरता है और फिर उड़कर कांधार जा पहुंचता है, बदले में तीन आतंकवादी छोडे जाते हैं और गृहमंत्री (साथ में उप प्रधानमंत्री भी) को कुछ पता ही नहीं चलता. अस्सी से ऊपर के आडवाणी जी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए पता नहीं क्यों मचल रहे हैं, क्या भाo जाo पाo में कोई योग्य युवा नेता नहीं जो प्रधानमंत्री के पद का दावेदार हो सके, वर्तमान सरकार के पांच साल पूरे होने पर ही उन्हें ब्लैक मनी की याद आयी, जब पांच साल तक उनकी सरकार थी तो आडवाणी जी क्या चद्दर तानकर सो रहे थे या फिर ये सारा का सारा ब्लैक मनी पिछले पांच साल में ही देश से बाहर गया है. संसद पर हमले के बाद फौज को सीमा पर खड़ा कर दिया और आर-पार का राग अलापते रहे, आडवाणी जी बताएं कि उन्हें उस समय किसने रोका था, क्या अंकल सैम ( जौर्ज बुश ) ने ..........असल में इस देश को न तो कमजोर प्रधानमंत्री चाहिए और न मजबूत ! इस देश को चाहिए देश-प्रेम से ओत-प्रोत और दृढ इच्छा शक्ति वाला विवेकशील प्रधानमंत्री.

रही बात लोकतंत्र को मजबूत करने की तो लोकतंत्र भी तभी मजबूत रहेगा जब कानून का डंडा (राज) सबसे ऊपर हो और सख्ती से लागू हो. ये नहीं कि लाल बत्ती पर गाड़ी निकाली और पकडे जाने पर 100 रु का चालान भरा और आगे निकल लिए. यूरोप की तरह कम से कम 10000 रु का चालान होना चाहिए अर्थार्त सख्ती तो करनी ही पड़ेगी इसका कोई विकल्प नहीं है, वरना लोकतंत्र के नाम पर ये देश पिछले साठ सालों की तरह यों ही बर्बाद होता रहेगा और आप और हम इसके मूक दर्शक बने रहेंगे.
श्रीकृष्ण वर्मा
देहरादून (उत्तराखंड)

Tuesday, April 21, 2009

क्या करें, इलेक्शन जो है !

इंडिया में ऐसा कहाँ लगता अजीब है .
कि नोट से नेता सीट लेता खरीद है !

डूबे ही रहते हैं वोटर सारे .
उनको न कोई माझी पार उतारे .
हर पांच साल फिर फूटता नसीब है !

गली-गली घूमते हैं गुंडे-हत्यारे ।
उनकी ही "जय हो" के लगते हैं नारे .
भलामानुस सदा चढ़ता सलीब है !

आज हैं जिनके ये कट्टर दुश्मन ।
कल को उन्हीं से जोडें ये गठबंधन ।
राजनीति का अपना एक गणित है !

पार्टी है नाम की और चमचे हैं नेता ।
होता वही जो चाहें माँ और बेटा .
जनतंत्र का धीरे-धीरे बुझता प्रदीप है !

भाग्य भरोसे जीती जनता बेचारी ।
जीती कभी न वो हमेशा है हारी .
भाग्य विधाता कर देता मट्टी पलीद है !

कर्मों की दुनिया के फंडे निराले ।
कब किसको ये मारे किसको ये बचा ले .
जनम-जनम की यहाँ कटती रसीद है !

दूर-दूर रहते हैं पासपोर्ट वाले ।
उनमे से कोई आ के वोट न डाले .
उनकी वजह से देश का उजड़ा भविष्य है !

आपस में लड़ते हैं दिमाग वाले ।
एकजुट हो के यदि हाथ मिला ले .
फिर देखो कैसे उल्लू बनता वजीर है !

दोस्तों ! चुनावों के माहौल में ये कविता हमारे एक मित्र ने भेजी थी आशा है आपको भी पसंद आयेगी।

Friday, April 17, 2009

जिंदगी में कभी - कभी.............

प्रिय दोस्तों,
एक दुर्घटना में दांये पैर के घुटने में फ्रैक्चर हो जाने के कारण दो महीनो से मैं बेड पर था. इन दिनों जिन्दगी ने अपना एक अलग ही रूप दिखाया. पहली बार महसूस हुआ कि लाचारी क्या होती है. जब आप अपनी रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जातें हैं. चाहकर भी आप कुछ कर नहीं पाते, बस पड़े - पड़े या तो किताबें पढ़ते रहो या फिर टेलीविजन देख कर समय काटो. समय तो काटना ही पड़ता है क्योंकि इसके अलावा कोई चारा भी नहीं होता. मिलने वाले आतें है तो कुछ तो वाकई हमदर्दी के नाते आते हैं और कुछ तो ......... उनके सामने अपने आपको बड़ा बेचारा सा महसूस होता है. ये वाकई बड़ा तकलीफ देय लगता है. खैर ये सब तो चलो ठीक है. लेकिन इसके बाद .....
जब आठ हफ्तों के बाद प्लास्टर खुला तो पता चला कि घुटना बुरी तरह जाम हो गया है पैर मुड़ता ही नहीं था, ओपरेशन करने वाले सर्जन ने कहा कि गरम पानी से सिकाई करो धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा. 15 दिनों के बाद जब सर्जन को दिखाया तो उसने कहा कि आपका पैर है आपको ही कोशिश करके ठीक करना पड़ेगा
. फिर मैंने दुसरे डॉक्टर को दिखाया तो उसने कहा कि आपको फिजिओठेरेपिस्ट के पास जाकर इलाज कराना होगा. फिजिओठेरेपिस्ट ने जांच कर एक डिजीटल एक्सरे कराने को कहा. एक्सरे को देख कर उसने इलाज करने से मना कर दिया क्योंकि एक्सरे रिपोर्ट में डाo ने किखा था कि मेरे पैर में सेप्टिक और इन्फेक्शन हो गया है और साथ में हड्डियों में टी बी भी है. फिर मैंने एक और ओर्थोपेडिक सर्जन को दिखाया तो उसने किसी भी तरह के इन्फेक्शन या सेप्टिक या टी बी होने से साफ़ मना कर दिया. लेकिन मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने एक और सर्जन से कंसल्ट किया तो उन्होंने ने भी कहा कि आपके पैर में कोई बीमारी नहीं है, उन्होंने बताया कि जब लम्बे समय तक पैर को प्लास्टर में रखा जाता है तो हड्डियां कमजोर होजाती है और एक्सरे में उस जगह पर कुछ स्पॉट नजर आते हैं ये एक सामान्य सी बात है.
खैर मुझे इससे बड़ी राहत मिली लेकिन असल समस्या तो पैर मुड़ने की थी। इसके लिए एक डॉक्टर ने तो दुबारा ओपरेशन की सलाह भी दी. लेकिन फ़िर मैं अपने एक मित्र के परिचित डॉक्टर के पास गया तो उन्होंने बताया की मेरा ओपरेशन दस साल पुरानी तकनीक से करा गया है और इसमें ऐसा ही होता है. अभी जो नयी तकनीक है उसमें जोडों के फ्रैक्चर में प्लास्टर नहीं किया जाता बल्कि टूटे हुए जोड़ में क्लिप लगाकर पूरे पैर में बाहर से एक ब्रैकेट लगा दिया जाता है इस ब्रैकेट को मरीज खुद लगा या हटा सकता है. इसका फायेदा ये होता है कि मरीज दिन में एक दो बार अपने घुटने को मोड़ने की प्रक्रिया खुद कर सकता है जिससे घुटना जाम होने की समस्या नहीं होती या फ़िर बहुत ही कम होती है
अब मुझे अपना पैर पूरा पीछे की और मोड़ने के लिए फिजिओठेरेपिस्ट की देख रेख में अगले 6 से 8 महीनो तक एक्सरसाईज करनी होगी.
आपका
श्रीकृष्ण वर्मा

Monday, February 9, 2009

समझ नही आता ..............

समझ में नही आता कि कहाँ से शुरू करुँ !
इटावा में 6-7 साल की गरीब बेसहारा बच्ची को उ०प्र० पुलिस द्वारा बर्बरता से महज इसलिए पीटा जाता है क्योंकि उसपर रु०280/- की चोरी का आरोप था। पुलिस के इस अपराध के बचाव में किसी भी किस्म की सफाई समझ में आ ही नही सकती, चाहे ये सफाई किरण बेदी ही क्यों न दे। इस मामले के सामने आने पर उ०प्र० सरकार द्वारा कुछ पुलिस कर्मियों का निलंबन....... सब जानते हैं कि निलंबित पुलिस कर्मी कुछ ही महीनो में वापस वर्दी पहन कर किसी दूसरे थाने में फिर किसी बच्ची या किसी गरीब की बेरहमी से पिटाई कर रहे होंगे।
हालाँकि किरण बेदी का तर्क कि पुलिस वाले बेहद तनाव में काम करते हैं, उनके काम के घंटे सुनिश्चित नही होते और उन्हें राजनीतिक दबाव में काम करना पङता है, अपनी जगह ठीक है लेकिन पुलिस द्वारा किए गए किसी भी अपराध के लिए ये तर्क स्वीकार नही किए जाने चाहिए। क्योंकि अगर ऐसा है तो फिर हर अपराध के लिए प्रत्येक अपराधी के पास अपने - अपने तर्क होंगे, ऐसे में क़ानून की क्या अहमियत रह जाती है.
लेकिन उससे भी बढ़कर हमारा कानूनी तंत्र ! वो तो बिल्कुल ही समझ से परे है। इटावा वाले इस केस में गिरफ्तार सब इंस्पेक्टर को कोर्ट ने जमानत दे दी. और जैसा कि मैने ऊपर भी लिखा है कुछ ही कुछ ही हफ्तों या महीनो में वो सब इंस्पेक्टर फिर से कुर्सी पर बैठकर डंडा चला रहा होगा. और आप देखियेगा कि मु०म० मायावती की तीन दिनों में जाँच रिपोर्ट के आदेश की किस तरह हवा निकलती है.
हमारे संविधान, क़ानून और उसे लागू करने वाले ! ये सब अब बिल्कुल बेअसर हो चले है। किसी ने ठीक ही कहा है कि यदि आपने बैंक से रु०10,000/- का क़र्ज़ लिया है तो ये आपकी जिम्मेदारी है और अगर आपने दस लाख रु० का क़र्ज़ लिया है तो ये बैंक की जिम्मेदारी है। अगर आप धनी या शक्तिशाली (या उनसे सरोकार) नहीं है तो हिन्दुस्तान का हर क़ानून आप पर लागू होता है। और अगर आपके पास धन व बल दोनों है तो इस मुल्क के क़ानून की हर किताब आपकी जेब में है।
भारत के प्रधान मंत्री कार्यालय ने सूचना के अधिकार के क़ानून पर अपनी सफाई दी है कि भारत सरकार के मंत्रियों व सांसदों पर सूचना के अधिकार का क़ानून लागू नही होगा, क्यों..... क्योंकि वे इस देश के मालिक है और मालिकों पर क़ानून लागू नहीं होते।
अस्सी से ऊपर के लाल कृष्ण आडवाणी प्रधान मंत्री की कुर्सी की खातिर अपनी लार टपकाते बेशर्मी से घूम रहे है। कुछ तो शर्म करो आडवाणी जी ! इस देश के युवाओं को आगे लाओ और देश की बागडोर उन्हें सम्हालने दो। जवानी तो आपने बरबाद कर ही दी, अब कुछ भजन कीर्तन करके अपना बुढापा तो संवार लो आख़िर ऊपर वाले को अपना मुंह दिखाना है कि नहीं।
आपका
श्रीकृष्ण वर्मा

Saturday, January 31, 2009

बात इतनी सी है .........

75 वषीय श्री बी. आर. शर्मा ने 10/06/1996 को मुख्य डाकघर, रतलाम (मध्य प्रदेश) से 3000/- का ऋण लिया था. इस ऋण को उन्होंने समय से पूर्व चुका दिया था। इसके बावजूद मुख्य डाक घर ने उनसे 527/- ज्यादा वसूल किए थे। जब शर्मा जी ने पूरे विवरण डाक घर को देने के बाद ज्यादा वसूल किए गए 527/- लौटाने को कहा तो उन्हें न केवल मना किया गया बल्कि अपमानित भी किया गया। शर्मा जी ने जिला उपभोक्ता फोरम में वाद दायर किया। पर वाह रे ! हमारा क़ानून, संविधान ... जिला उपभोक्ता फोरम एक घिसे पिटे रिश्वतखोर सरकारी दफ्तर की तरह साल-दर-साल इस केस की सुनवायी करता रहा। लेकिन, शर्मा जी के जुझारूपन और जीवट के आगे आखिर उसे घुटने टेकने पड़े और दस साल की मैराथन सुनवायी के पश्चात शर्मा जी के पक्ष में 18/12/2008 को फैसला दिया। उस समय जिला उपभोक्ता फोरम की अध्यक्ष सुश्री भारती बघेल थी।

जजों के आयकर रिटर्न की जानकारी देने के सी। आई। सी. के फैसले ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट में अपील दायर की है। यह बात समझ से परे है कि जजों को अपनी आय और संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करने में क्या परेशानी है। और, अगर हाई कोर्ट के फैसले से, यदि कोई पक्ष सहमत नही होता है, तो मामला सुप्रीम कोर्ट जायेगा ही ..... तो क्या! जज साहब अपने मामले में ख़ुद फैसला करेंगे. इस विषय पर प्रसिद्ध वकील शांती भूषण कहते है कि इन हालात में आवश्यकता का सिद्धांत अपनाया जाता है. जबकि इसी प्रकार के सैंकडो अन्य केसों में सुप्रीम कोर्ट यह कर केस खारिज कर देता है कि आरोपित व्यक्ति स्वयम जज बन कर फैसला नही दे सकता। हालाकि, लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी कह चुके है कि, जजों को भी अपनी आय का ब्यौरा सार्वजनिक करना चाहिए. इसपर मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि जजों की आय के घोषणा करने के बारे में कोई कानून नही है. तो फ़िर इस देश में इमानदार बने रहने के लिए भी तो कोई कानून नही है. अरे साहेब ! रुकिए .... कहीं इस देश में उच्चतम स्तर पर इसीलिये तो इमानदारों की कमीं हो रही है क्या ?...खैर !.. अपन की मोटी बुद्धी में तो यही एक बात आती है कि .....कानून वो रस्सी है जिससे केवल कमजोर लोगों को बांधा जाता है।
अंत में .... फिलिप्स ब्रुक्स के शब्दों में .... आने वाले जीवन में किसी दिन आप किसी बड़े प्रलोभन से कुश्ती लड़ रहे होंगे या अपने जीवन की किसी भारी विपत्ति के तले काँप रहे होंगे। परन्तु असली संघर्ष यहाँ है, अभी .... अभी यह फैसला किया जा रहा है कि आपके सबसे बड़े दुःख या प्रलोभन के दिन आप बुरी तरह से हारेंगे या शानदार तरीके से जीतेगें. निरंतर और लंबी प्रक्रिया के बिना चरित्र का निर्माण नहीं किया जा सकता.
आपका,
एस। के। वर्मा

Monday, January 26, 2009

भारत का महा-भारत

समय! जो किसी के लिए न कभी ठहरा है और न ठहरेगा। समय कभी किसी को क्षमा नही करता। इसलिए हे भारत ! तेरा समय तुझे सावधान कर रहा है कि नीति वही है जो देश के हित में हो। राजनीति भी वही है जननीति भी वही है।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - भारयति इति धर्मः । इसलिए देश कल्याण कि तुला पर नीतियों को तोल कर निर्णय लेना सीख । जो तू यही न सीख पाया तो तू स्वयं अपना दुरूपयोग कर रहा है। देश प्रेम से बड़ा कोई धर्म नही, देश कल्याण से अधिक महत्वपूर्ण कोई स्वप्न नही, देश हित से अधिक महत्वपूर्ण कोई हित नही। हे! असंख्य लोगों कि भारत माता अपनी संतान को देशप्रेम का वरदान दे कि वो तेरे अतिरिक्त किसी और के लिए जीना और तेरे अतिरिक्त किसी और के लिए मरना छोड़ दे। अपनी संतान को ये आशीर्वाद दे कि ये संकट की घड़ी है और तेरी संतान अपने कुरुक्षेत्र में खड़ी है। और संयोंग देख कि इस भारत माता की कथा भी आज अपने कुरुक्षेत्र पहुँच चुकी है। और हर युग का कुरुक्षेत्र उस युग कि धर्म भूमि होता है। और देख सामने कुरुक्षेत्र में सेनायें पड़ाव डालचुकी हैं।
फिर मिलेंगे ।
एस। के।
२७-०१-२००९

Saturday, January 24, 2009

आत्मा का सफर - 2

गत अंक से से आगे........
यह आत्मा ही है जो शरीर को जीवित रखती है - इसे भागने-दौड़ने, उछालने, कूदने, तैरने और उड़ने के योग्य बनाती है। जब नाटक में आत्मा की भूमिका समाप्त हो जाती है तो वह शरीर की पोशाक उतार देती है। तब शरीर की मृत्यु हो जाती है, वह निर्जीव हो जाता है; न साँस ले सकता है, न हिल-डुल सकता है।
पर आत्मा कभी नही मरती! तुम्हारी आत्मा परमात्मा की एक प्रकाशमय बूँद है। इसलिए वास्तव में तुम सदा जीवित रहते हो। जब आत्मा शरीर की पोशाक उतार देती है तब वह कहाँ जाती है? वह नै शरीर में एक नई जिंदगी शुरू करती है। उसे सृष्टि के रंगमंच पर एक अन्य भुमिका देदेती है और एक नई पोशाक पहना दी जाती है। इसी को जन्म कहते हैं।
परमेश्वर यह देख कर प्रसन्न होता है कि हर आत्मा "जीवन" के नाटक में उसकी दी हुई भूमिकाको खुशी-खुशी स्वीकार करती है।
परमात्मा ने अपना नाटक इस ढंग से रचा है कि यह एक दम वास्तविक लगता है इसलिए उसकी आत्माएं यह बिल्कुल भूल जाती हैं कि वे केवल अभिनय कर रही हैं। कभी-२ "जीवन" में जो घाट चुका है या घटने वाला है उसके बारे में उन्हें चिंता होती है पर जो होता है, उसके बारे में परमात्मा चिंता नही करता क्योंकि वह निर्देशक है और जानता है कि "जीवन" केवल एक नाटक है।
जब परमात्मा चाहता है कि कोई आत्मा घर लौट आए तो वह उसे अन्दर गहरे अकेले पण की भावना जगा देता है और उसे ऐसा लगता है जैसे उसका कुछ खो गया हो। यह परमात्मा का आत्मा को याद दिलाने का एक निराला ढंग है की उसका असली घर इस संसार में नहीं, बल्कि प्रकाश के सागर में है जहाँ से वह आयी है।
प्रकाश की कौंध में द्वार खुलता है। परमात्मा उस आत्मा को, उस नन्ही बूँद को, पुनः प्रकाश के महा सागर में विलीन कर देता है और परम पिता परमात्मा में समाई आत्मा सदा के लिए सुख शान्ति और आंनंद में रहने लगती है।
आपका,
एस.के. वर्मा
२४-०१-२००९

Wednesday, January 21, 2009

आत्मा का सफर - १

बहुत पहले, बिल्कुल शुरू में, समय के आरम्भ से भी पहले, केवल परमात्मा था, परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं था। तब न आकाश थे, न ग्रह, न ही सूर्य, चाँद और सितारे।
न मनुष्य थे, न पशु, न पक्षी, न पेड़। कुछ भी नहीं था सिवाय परमात्मा के। परमात्मा प्रेम का अलौकिक प्रकाशमय सागर था। उस विशाल सागर में प्रकाश की लाखों - करोड़ों बूँदें थी जो गहरी नींद सो रही थी।
क्योंकि वे सो रही थी, उन्हें इस बात का अनुमान ही नहीं था कि परमात्मा कितना आकर्षक और प्रकाशवान है। हर एक बूँद प्रकाश के अथाह सागर, परमात्मा का एक छोटा-सा अंश थी। प्रकाश की हर नन्ही बूँद आत्मा कहलाई। तुम भी उन्हीं नन्ही बूंदों में से एक हो।
अचानक परमात्मा के अंदर सृष्टि-रचना करना की मौज उठी। उसने अपने में से शब्द और प्रकाश की एक जगमाती अद्भुत लहर प्रकट की और उससे संपूर्ण सृष्टि की रचना कर दी। परमात्मा ने बनाये आकाश, ग्रह, सूर्य,चाँद और सितारे। बनाये पर्वत, अपनी अपनी और रेगिस्तानa; समुंदर ,नदियाँ और नाले अत्यन्त भव्य और सुंदर बनी यह सृष्टि.... परन्तु इसका आनंद लेने के लिए इसमें कोई प्राणी नहीं था।
इसलिए परमात्मा ने एक नाटक का फैसला किया। उसने अपने आत्माओ को पात्र और नव-रचित सृष्टि को रंगमंच बनाया। वह स्वयं निर्देशक बना और अपने नाटक का नाम उसने "जीवन" रखा दिया। लगभग सभी आत्माएं उसके नाटक में भाग लेना चाहती थी। इसलिए परमात्मा ने उनसे कहा की तुम प्रकाश के सागर, अपने घर को छोड़ कर सृष्टि के रंगमंच पर अभिनय करने के लिए नीचे जा सकती हो।

लेकिन उन नन्हीं बूंदों में से कुछ ऐसी थी जो इस रचना में आने को बिल्कुल तैयार नहीं थीं। वे अपने स्वामी के साथ घर में ही रहना चाहती थी। पर परमात्मा ने उनसे भी कहा की जाओ और तुम भी मेरे नाटक के पात्र बनने का आनंद लो। तब परमात्मा ने हर आत्मा पर जो उसके साथ रहना चाहती थी, मोहर लगा दी और उनसे वादा किया की एक दिन मैं तुम्हें वापस तुम्हारे असली घर, यहाँ अपने पास बुलवा लूँगा। बाकी आत्माओं से परमात्मा ने कहा की अगर तुम भी कभी घर लौटना चाहो तो मैं तुम पर भी मोहर लगा दूँगा और अपनी अपार दया-मेहर से निज-घर वापस पहुँचने में तुम्हारी भी सहायता करूंगा।

और इस तरह परमेश्वर की इच्छा अनुसार सभी नन्हीं बूंदों ने अपना असली घर छोड़ दिया। अनेक शानदार और आश्चर्यजनक मंडलों में से होती हुई अंत में वे इस संसार के रंगमंच पर उतरी, जहाँ आज हम रह रहे हैं। नाटक अब शुरू होने के लिए तैयार था।

परमात्मा ने हर आत्मा को एक पोशाक पहना दी ताकि प्रकाश की हर नन्हीं बूँद उसके नाटक "जीवन" में अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जाये।

आत्मा की इस पोशाक को "शरीर" कहते हैं। धरती पर हर आत्मा ने शरीर की पोशाक पहनी हुई है। आत्मा जितने समये के लिए एक शरीर धारण करती है और "जीवन" के नाटक में निर्धारित भूमिका निभाती है, उसे "एक जन्म" कहा जाता है।

कुछ आत्माओं को पेड़-पौधों के शरीर दिए गए, कुछ को कीडे-मकोडों, सांप-बिछुओं आदि के। कुछ आत्माओं को परमेश्वर ने मछलियों और पक्षियों के शरीर दिए और कुछ को पशुओं के।

कुछ आत्माओं को उसने दिया सबसे अद्भुत मनुष्य शरीर ! शरीरों की पोशाक पहने आत्माएं भिन्न-भिन्न दिखायी देती हैं, पर अलग-अलग शरीरों में छिपीं वे सब प्रकाश और प्रेम की एक सी नन्हीं बूँद है।

हम सब एक ही परिवार के सदस्य हैं, क्योंकि एक कुल-मालिक परमात्मा ही हम सबका पिता है। हमें हर प्राणी के साथ दया, नम्रता और प्रेम का व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि हर प्राणी के अन्दर आत्मा का वास है।
शेष फिर ,
आपका
एस के वर्मा
२१-०१-२००९