गत अंक से से आगे........
यह आत्मा ही है जो शरीर को जीवित रखती है - इसे भागने-दौड़ने, उछालने, कूदने, तैरने और उड़ने के योग्य बनाती है। जब नाटक में आत्मा की भूमिका समाप्त हो जाती है तो वह शरीर की पोशाक उतार देती है। तब शरीर की मृत्यु हो जाती है, वह निर्जीव हो जाता है; न साँस ले सकता है, न हिल-डुल सकता है।
पर आत्मा कभी नही मरती! तुम्हारी आत्मा परमात्मा की एक प्रकाशमय बूँद है। इसलिए वास्तव में तुम सदा जीवित रहते हो। जब आत्मा शरीर की पोशाक उतार देती है तब वह कहाँ जाती है? वह नै शरीर में एक नई जिंदगी शुरू करती है। उसे सृष्टि के रंगमंच पर एक अन्य भुमिका देदेती है और एक नई पोशाक पहना दी जाती है। इसी को जन्म कहते हैं।
परमेश्वर यह देख कर प्रसन्न होता है कि हर आत्मा "जीवन" के नाटक में उसकी दी हुई भूमिकाको खुशी-खुशी स्वीकार करती है।
परमात्मा ने अपना नाटक इस ढंग से रचा है कि यह एक दम वास्तविक लगता है इसलिए उसकी आत्माएं यह बिल्कुल भूल जाती हैं कि वे केवल अभिनय कर रही हैं। कभी-२ "जीवन" में जो घाट चुका है या घटने वाला है उसके बारे में उन्हें चिंता होती है पर जो होता है, उसके बारे में परमात्मा चिंता नही करता क्योंकि वह निर्देशक है और जानता है कि "जीवन" केवल एक नाटक है।
जब परमात्मा चाहता है कि कोई आत्मा घर लौट आए तो वह उसे अन्दर गहरे अकेले पण की भावना जगा देता है और उसे ऐसा लगता है जैसे उसका कुछ खो गया हो। यह परमात्मा का आत्मा को याद दिलाने का एक निराला ढंग है की उसका असली घर इस संसार में नहीं, बल्कि प्रकाश के सागर में है जहाँ से वह आयी है।
प्रकाश की कौंध में द्वार खुलता है। परमात्मा उस आत्मा को, उस नन्ही बूँद को, पुनः प्रकाश के महा सागर में विलीन कर देता है और परम पिता परमात्मा में समाई आत्मा सदा के लिए सुख शान्ति और आंनंद में रहने लगती है।
आपका,
एस.के. वर्मा
२४-०१-२००९
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