Wednesday, April 29, 2009

कमजोर या मजबूत...........

अगर पिछले साठ सालों पर नज़र दौडाएं तो केवल दो प्रधानमंत्री ही नजर आतें हैं. एक श्रीमती इंदिरा गाँधी और दूसरे श्री लाल बहादुर शास्त्री, इनके अलावा कोई दूसरा याद नहीं आता. लाल बहादुर शास्त्री तो केवल अट्ठारह महीने ही शासन कर पाए. किन्तु अट्ठारह महीनों में उनहोंने दो ऐसे महत्वपूर्ण काम किये जिनके लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा. पहला पाकिस्तान को उसी की भाषा में सबक सिखाना, किन्तु युद्ध समाप्ति के पश्चात वैश्विक ताकतों के आगे वे खुद को दृढ नहीं रख पाए और दबाव में आकर उन्हें समझौता करना पड़ा. समझौते के लिए उनका सोवियत रूस जाना आखिरकार देश और उनके स्वयं के लिए घातक सिद्ध हुआ. लेकिन इससे पहले जो दूसरा काम उन्होंने किया वो था पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना. आपको शायद याद होगा कि उस समय देश अनाज की कमी से जूझ रहा था और ऐसे में उनकी एक आवाज पर देश भर में सप्ताह में एक बार अधिकांश लोगों ने व्रत रखना शुरू कर दिया था. लेकिन उससे भी बड़ी बात, उस वक़्क्त अधिकतर ढाबों व् होटलों ने भी सप्ताह में एक बार अपने प्रतिष्ठानों को बंद रखना शुरू कर दिया था. ये वास्तव में एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी, विशेषतया आज के हालात को देखते हुए तो वाकई एक बड़ी उपलब्धि थी. मुझे नहीं लगता कि यदि आज के सारे नेता भी मिलकर ऐसा कोई निर्णय लें और देश की जनता से कहें तो कोई उनकी बात पर अमल करेगा, अमल तो दूर की बात है कोई उन पर भरोसा ही नहीं करेगा. यही है आज के सत्ताधारियों की असलियत. ये शास्त्री जी का चरित्र ही था कि उनकी एक आवाज पर देश उनके साठ उठ खड़ा होता था. यही है एक मजबूत प्रधानमंत्री की विशेषता.

श्रीमती इंदिरा गांधी एक करिश्माई नेता थी लेकिन वो एक दृढ इच्छा शक्ति वाली भी थी. मेरे विचार में यही एक विशेषता उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाती थी, वो जो ठान लेती थी उसे अंततः पूरा करके ही छोड़ती थी (यही उनकी आलोचना का कारण भी था) चाहे बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो, चाहे बांग्लादेश की स्थापना या ब्लू स्टार ऑपेरशन या फिर इमरजेंसी की घोषणा. इसका ये अर्थ कतई नहीं है कि उनके सारे निर्णय सही थे. इमरजेंसी लगाना लोकतंत्र के लिए बेहद नुकसानदेह था. लेकिन जैसे हर बुराई में एक अच्छाई होती है उसी तरह इमरजेंसी में एक बात जरूर हुई कि दफ्तरों में कर्मचारी समय पर आने लगे, बसें और रेल समय पर चलनी शुरू हो गयी, हालांकि पूर्ण रूप से नहीं पर अधिकतर, हाँ उस समय बड़े अफसर और विभागाध्यक्ष निरंकुश हो गए और ज्यादातर कर्मचारियों का उत्पीडन हुआ था. उस समय की एक घटना...........

भारतीय स्टेट बैंक के दिल्ली मंडल में उस समय एक महाप्रबंधक थे श्री रंगाचारी, उन्होंने इमरजेंसी में कर्मचारियों का बड़ा उत्पीडन किया, वे बैंक की किसी भी शाखा में पहुँच जाते थे और अगर कोई कर्मचारी अपनी सीट पर नहीं मिलता (चाहे वो उस समय टॉयलेट ही क्यों न गया हो) उसको तुंरत निलंबित कर देते थे और अगर निलंबित नहीं किया तो 200 से 250 किo मीo दूर ट्रांसफर अवश्य कर ही देते थे और किसी-किसी का पूरे दिन का वेतन काटने के आदेश दे देते थे. लेकिन जब इमरजेंसी ख़त्म हुई और उनका रिटायमेंट हुआ तो जानते हैं उनके साथ क्या हुआ ! नयी दिल्ली के स्थानीय प्रधान कार्यालय की लिफ्ट में कर्मचारियों ने उनकी जम कर धुनाई कर डाली और उनके गले में जूतों का हार डाल कर विदा किया. स्टाफ द्वारा उनके साथ किया गया ये व्यव्हार कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन ये तो प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, क्रिया जितनी तीव्र होगी प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीव्रता से होगी. इमरजेंसी के बाद 1977 के आम चुनावों में इंदिरा जी की हार भी इसी का परिणाम थी.
इन सारे घटनाक्रमों को यदि ध्यान से देखा जाए तो इनमें एक मूल तत्त्व का नितांत आभाव था और वो है "विवेक" . मनुष्य (चाहे वो किसी स्तर पर हो) के द्बारा लिए निर्णयों में विवेकशीलता का होना अत्यंत आवश्यक है. विवेकहीनता से तो एक घर भी नहीं चलता फिर देश चलाने की तो बात ही सोचना बेकार है.

आडवानी जी मनमोहन सिंह जी को कमजोर प्रधानमंत्री बता रहें हैं और वे खुद तो कमजोर भी साबित नहीं हो सके, भारतीय यात्री विमान अगवा कर लिया जाता है उसके बाद वो अमृतसर के हवाई अड्डे पर उतरता है और फिर उड़कर कांधार जा पहुंचता है, बदले में तीन आतंकवादी छोडे जाते हैं और गृहमंत्री (साथ में उप प्रधानमंत्री भी) को कुछ पता ही नहीं चलता. अस्सी से ऊपर के आडवाणी जी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए पता नहीं क्यों मचल रहे हैं, क्या भाo जाo पाo में कोई योग्य युवा नेता नहीं जो प्रधानमंत्री के पद का दावेदार हो सके, वर्तमान सरकार के पांच साल पूरे होने पर ही उन्हें ब्लैक मनी की याद आयी, जब पांच साल तक उनकी सरकार थी तो आडवाणी जी क्या चद्दर तानकर सो रहे थे या फिर ये सारा का सारा ब्लैक मनी पिछले पांच साल में ही देश से बाहर गया है. संसद पर हमले के बाद फौज को सीमा पर खड़ा कर दिया और आर-पार का राग अलापते रहे, आडवाणी जी बताएं कि उन्हें उस समय किसने रोका था, क्या अंकल सैम ( जौर्ज बुश ) ने ..........असल में इस देश को न तो कमजोर प्रधानमंत्री चाहिए और न मजबूत ! इस देश को चाहिए देश-प्रेम से ओत-प्रोत और दृढ इच्छा शक्ति वाला विवेकशील प्रधानमंत्री.

रही बात लोकतंत्र को मजबूत करने की तो लोकतंत्र भी तभी मजबूत रहेगा जब कानून का डंडा (राज) सबसे ऊपर हो और सख्ती से लागू हो. ये नहीं कि लाल बत्ती पर गाड़ी निकाली और पकडे जाने पर 100 रु का चालान भरा और आगे निकल लिए. यूरोप की तरह कम से कम 10000 रु का चालान होना चाहिए अर्थार्त सख्ती तो करनी ही पड़ेगी इसका कोई विकल्प नहीं है, वरना लोकतंत्र के नाम पर ये देश पिछले साठ सालों की तरह यों ही बर्बाद होता रहेगा और आप और हम इसके मूक दर्शक बने रहेंगे.
श्रीकृष्ण वर्मा
देहरादून (उत्तराखंड)

Tuesday, April 21, 2009

क्या करें, इलेक्शन जो है !

इंडिया में ऐसा कहाँ लगता अजीब है .
कि नोट से नेता सीट लेता खरीद है !

डूबे ही रहते हैं वोटर सारे .
उनको न कोई माझी पार उतारे .
हर पांच साल फिर फूटता नसीब है !

गली-गली घूमते हैं गुंडे-हत्यारे ।
उनकी ही "जय हो" के लगते हैं नारे .
भलामानुस सदा चढ़ता सलीब है !

आज हैं जिनके ये कट्टर दुश्मन ।
कल को उन्हीं से जोडें ये गठबंधन ।
राजनीति का अपना एक गणित है !

पार्टी है नाम की और चमचे हैं नेता ।
होता वही जो चाहें माँ और बेटा .
जनतंत्र का धीरे-धीरे बुझता प्रदीप है !

भाग्य भरोसे जीती जनता बेचारी ।
जीती कभी न वो हमेशा है हारी .
भाग्य विधाता कर देता मट्टी पलीद है !

कर्मों की दुनिया के फंडे निराले ।
कब किसको ये मारे किसको ये बचा ले .
जनम-जनम की यहाँ कटती रसीद है !

दूर-दूर रहते हैं पासपोर्ट वाले ।
उनमे से कोई आ के वोट न डाले .
उनकी वजह से देश का उजड़ा भविष्य है !

आपस में लड़ते हैं दिमाग वाले ।
एकजुट हो के यदि हाथ मिला ले .
फिर देखो कैसे उल्लू बनता वजीर है !

दोस्तों ! चुनावों के माहौल में ये कविता हमारे एक मित्र ने भेजी थी आशा है आपको भी पसंद आयेगी।

Friday, April 17, 2009

जिंदगी में कभी - कभी.............

प्रिय दोस्तों,
एक दुर्घटना में दांये पैर के घुटने में फ्रैक्चर हो जाने के कारण दो महीनो से मैं बेड पर था. इन दिनों जिन्दगी ने अपना एक अलग ही रूप दिखाया. पहली बार महसूस हुआ कि लाचारी क्या होती है. जब आप अपनी रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जातें हैं. चाहकर भी आप कुछ कर नहीं पाते, बस पड़े - पड़े या तो किताबें पढ़ते रहो या फिर टेलीविजन देख कर समय काटो. समय तो काटना ही पड़ता है क्योंकि इसके अलावा कोई चारा भी नहीं होता. मिलने वाले आतें है तो कुछ तो वाकई हमदर्दी के नाते आते हैं और कुछ तो ......... उनके सामने अपने आपको बड़ा बेचारा सा महसूस होता है. ये वाकई बड़ा तकलीफ देय लगता है. खैर ये सब तो चलो ठीक है. लेकिन इसके बाद .....
जब आठ हफ्तों के बाद प्लास्टर खुला तो पता चला कि घुटना बुरी तरह जाम हो गया है पैर मुड़ता ही नहीं था, ओपरेशन करने वाले सर्जन ने कहा कि गरम पानी से सिकाई करो धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा. 15 दिनों के बाद जब सर्जन को दिखाया तो उसने कहा कि आपका पैर है आपको ही कोशिश करके ठीक करना पड़ेगा
. फिर मैंने दुसरे डॉक्टर को दिखाया तो उसने कहा कि आपको फिजिओठेरेपिस्ट के पास जाकर इलाज कराना होगा. फिजिओठेरेपिस्ट ने जांच कर एक डिजीटल एक्सरे कराने को कहा. एक्सरे को देख कर उसने इलाज करने से मना कर दिया क्योंकि एक्सरे रिपोर्ट में डाo ने किखा था कि मेरे पैर में सेप्टिक और इन्फेक्शन हो गया है और साथ में हड्डियों में टी बी भी है. फिर मैंने एक और ओर्थोपेडिक सर्जन को दिखाया तो उसने किसी भी तरह के इन्फेक्शन या सेप्टिक या टी बी होने से साफ़ मना कर दिया. लेकिन मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने एक और सर्जन से कंसल्ट किया तो उन्होंने ने भी कहा कि आपके पैर में कोई बीमारी नहीं है, उन्होंने बताया कि जब लम्बे समय तक पैर को प्लास्टर में रखा जाता है तो हड्डियां कमजोर होजाती है और एक्सरे में उस जगह पर कुछ स्पॉट नजर आते हैं ये एक सामान्य सी बात है.
खैर मुझे इससे बड़ी राहत मिली लेकिन असल समस्या तो पैर मुड़ने की थी। इसके लिए एक डॉक्टर ने तो दुबारा ओपरेशन की सलाह भी दी. लेकिन फ़िर मैं अपने एक मित्र के परिचित डॉक्टर के पास गया तो उन्होंने बताया की मेरा ओपरेशन दस साल पुरानी तकनीक से करा गया है और इसमें ऐसा ही होता है. अभी जो नयी तकनीक है उसमें जोडों के फ्रैक्चर में प्लास्टर नहीं किया जाता बल्कि टूटे हुए जोड़ में क्लिप लगाकर पूरे पैर में बाहर से एक ब्रैकेट लगा दिया जाता है इस ब्रैकेट को मरीज खुद लगा या हटा सकता है. इसका फायेदा ये होता है कि मरीज दिन में एक दो बार अपने घुटने को मोड़ने की प्रक्रिया खुद कर सकता है जिससे घुटना जाम होने की समस्या नहीं होती या फ़िर बहुत ही कम होती है
अब मुझे अपना पैर पूरा पीछे की और मोड़ने के लिए फिजिओठेरेपिस्ट की देख रेख में अगले 6 से 8 महीनो तक एक्सरसाईज करनी होगी.
आपका
श्रीकृष्ण वर्मा