Tuesday, April 21, 2009

क्या करें, इलेक्शन जो है !

इंडिया में ऐसा कहाँ लगता अजीब है .
कि नोट से नेता सीट लेता खरीद है !

डूबे ही रहते हैं वोटर सारे .
उनको न कोई माझी पार उतारे .
हर पांच साल फिर फूटता नसीब है !

गली-गली घूमते हैं गुंडे-हत्यारे ।
उनकी ही "जय हो" के लगते हैं नारे .
भलामानुस सदा चढ़ता सलीब है !

आज हैं जिनके ये कट्टर दुश्मन ।
कल को उन्हीं से जोडें ये गठबंधन ।
राजनीति का अपना एक गणित है !

पार्टी है नाम की और चमचे हैं नेता ।
होता वही जो चाहें माँ और बेटा .
जनतंत्र का धीरे-धीरे बुझता प्रदीप है !

भाग्य भरोसे जीती जनता बेचारी ।
जीती कभी न वो हमेशा है हारी .
भाग्य विधाता कर देता मट्टी पलीद है !

कर्मों की दुनिया के फंडे निराले ।
कब किसको ये मारे किसको ये बचा ले .
जनम-जनम की यहाँ कटती रसीद है !

दूर-दूर रहते हैं पासपोर्ट वाले ।
उनमे से कोई आ के वोट न डाले .
उनकी वजह से देश का उजड़ा भविष्य है !

आपस में लड़ते हैं दिमाग वाले ।
एकजुट हो के यदि हाथ मिला ले .
फिर देखो कैसे उल्लू बनता वजीर है !

दोस्तों ! चुनावों के माहौल में ये कविता हमारे एक मित्र ने भेजी थी आशा है आपको भी पसंद आयेगी।

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