Wednesday, January 21, 2009

आत्मा का सफर - १

बहुत पहले, बिल्कुल शुरू में, समय के आरम्भ से भी पहले, केवल परमात्मा था, परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं था। तब न आकाश थे, न ग्रह, न ही सूर्य, चाँद और सितारे।
न मनुष्य थे, न पशु, न पक्षी, न पेड़। कुछ भी नहीं था सिवाय परमात्मा के। परमात्मा प्रेम का अलौकिक प्रकाशमय सागर था। उस विशाल सागर में प्रकाश की लाखों - करोड़ों बूँदें थी जो गहरी नींद सो रही थी।
क्योंकि वे सो रही थी, उन्हें इस बात का अनुमान ही नहीं था कि परमात्मा कितना आकर्षक और प्रकाशवान है। हर एक बूँद प्रकाश के अथाह सागर, परमात्मा का एक छोटा-सा अंश थी। प्रकाश की हर नन्ही बूँद आत्मा कहलाई। तुम भी उन्हीं नन्ही बूंदों में से एक हो।
अचानक परमात्मा के अंदर सृष्टि-रचना करना की मौज उठी। उसने अपने में से शब्द और प्रकाश की एक जगमाती अद्भुत लहर प्रकट की और उससे संपूर्ण सृष्टि की रचना कर दी। परमात्मा ने बनाये आकाश, ग्रह, सूर्य,चाँद और सितारे। बनाये पर्वत, अपनी अपनी और रेगिस्तानa; समुंदर ,नदियाँ और नाले अत्यन्त भव्य और सुंदर बनी यह सृष्टि.... परन्तु इसका आनंद लेने के लिए इसमें कोई प्राणी नहीं था।
इसलिए परमात्मा ने एक नाटक का फैसला किया। उसने अपने आत्माओ को पात्र और नव-रचित सृष्टि को रंगमंच बनाया। वह स्वयं निर्देशक बना और अपने नाटक का नाम उसने "जीवन" रखा दिया। लगभग सभी आत्माएं उसके नाटक में भाग लेना चाहती थी। इसलिए परमात्मा ने उनसे कहा की तुम प्रकाश के सागर, अपने घर को छोड़ कर सृष्टि के रंगमंच पर अभिनय करने के लिए नीचे जा सकती हो।

लेकिन उन नन्हीं बूंदों में से कुछ ऐसी थी जो इस रचना में आने को बिल्कुल तैयार नहीं थीं। वे अपने स्वामी के साथ घर में ही रहना चाहती थी। पर परमात्मा ने उनसे भी कहा की जाओ और तुम भी मेरे नाटक के पात्र बनने का आनंद लो। तब परमात्मा ने हर आत्मा पर जो उसके साथ रहना चाहती थी, मोहर लगा दी और उनसे वादा किया की एक दिन मैं तुम्हें वापस तुम्हारे असली घर, यहाँ अपने पास बुलवा लूँगा। बाकी आत्माओं से परमात्मा ने कहा की अगर तुम भी कभी घर लौटना चाहो तो मैं तुम पर भी मोहर लगा दूँगा और अपनी अपार दया-मेहर से निज-घर वापस पहुँचने में तुम्हारी भी सहायता करूंगा।

और इस तरह परमेश्वर की इच्छा अनुसार सभी नन्हीं बूंदों ने अपना असली घर छोड़ दिया। अनेक शानदार और आश्चर्यजनक मंडलों में से होती हुई अंत में वे इस संसार के रंगमंच पर उतरी, जहाँ आज हम रह रहे हैं। नाटक अब शुरू होने के लिए तैयार था।

परमात्मा ने हर आत्मा को एक पोशाक पहना दी ताकि प्रकाश की हर नन्हीं बूँद उसके नाटक "जीवन" में अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जाये।

आत्मा की इस पोशाक को "शरीर" कहते हैं। धरती पर हर आत्मा ने शरीर की पोशाक पहनी हुई है। आत्मा जितने समये के लिए एक शरीर धारण करती है और "जीवन" के नाटक में निर्धारित भूमिका निभाती है, उसे "एक जन्म" कहा जाता है।

कुछ आत्माओं को पेड़-पौधों के शरीर दिए गए, कुछ को कीडे-मकोडों, सांप-बिछुओं आदि के। कुछ आत्माओं को परमेश्वर ने मछलियों और पक्षियों के शरीर दिए और कुछ को पशुओं के।

कुछ आत्माओं को उसने दिया सबसे अद्भुत मनुष्य शरीर ! शरीरों की पोशाक पहने आत्माएं भिन्न-भिन्न दिखायी देती हैं, पर अलग-अलग शरीरों में छिपीं वे सब प्रकाश और प्रेम की एक सी नन्हीं बूँद है।

हम सब एक ही परिवार के सदस्य हैं, क्योंकि एक कुल-मालिक परमात्मा ही हम सबका पिता है। हमें हर प्राणी के साथ दया, नम्रता और प्रेम का व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि हर प्राणी के अन्दर आत्मा का वास है।
शेष फिर ,
आपका
एस के वर्मा
२१-०१-२००९



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